ऐ शैख़ मुझ को ख़्वाहिश-ए-बाग़-ए-इरम नहीं कूचा बुतों का मेरे लिए उस से कम नहीं पहली सी उस में आदत-ए-जौर-ओ-सितम नहीं अफ़्सोस अब यही है कि इस वक़्त हम नहीं हाँ कू-ए-ग़ैर में तिरे नक़्श-ए-क़दम नहीं तुझ पर मिरा गुमान ख़ुदा की क़सम नहीं मुझ नीम-जाँ के क़त्ल में ताख़ीर इस क़दर मा'लूम हो गया तिरे ख़ंजर में दम नहीं नालो तुम्हारे हाथ है फ़ुर्क़त में अपनी शर्म देखें तो आज चर्ख़ नहीं है कि हम नहीं आब-ए-बक़ा हो मुझ को पिलाओ जो आब-ए-तेग़ तुम ज़हर भी जो दो तो वो अमृत से कम नहीं करता है मुझ से अहद-ए-वफ़ा तो वो बुत मगर मुझ को कुछ ए'तिबार ख़ुदा की क़सम नहीं मुमकिन नहीं कहीं हो ठिकाना 'फहीम' का तेरी निगाह-ए-लुत्फ़ अगर ऐ सनम नहीं