ऐ सुख़नवर तरह गुमाँ हूँ मैं या फ़क़त हर्फ़-ए-राएगाँ हूँ मैं अक्स जल बुझ गए बुझा चेहरा आइने से उठा धुआँ हूँ मैं है मयस्सर मता-ए-तिश्ना-लबी ख़ुश्क दरिया का पासबाँ हूँ मैं आग से बैर धूप भी है अदू और इक मोम का मकाँ हूँ मैं मुश्तरक हम में हिजरतों की थकन तितलियों का मिज़ाज-दाँ हूँ मैं तजरबे की घनेरी छाँव लिए एक कोहना सा साएबाँ हूँ मैं कब मिटा दे मुझे हवा की लकीर राह-रौ रेत पर निशाँ हूँ मैं कल मिरा वस्फ़ था तरीक़-ए-सुलूक आज बे-नाम बे-निशाँ हूँ मैं शहर में हर्फ़-ए-आश्ना ही नहीं फ़ैज़ क्या लफ़्ज़ बे-कराँ हूँ मैं जो हक़ीक़त थे वो गए 'साबिर' एक मौहूम दास्ताँ हूँ मैं