शाइ'र हुए तो क्या हुए 'एहसान' ही रहे 'मिर्ज़ा'-ओ-'मीर' बन न सके ख़ान ही रहे इम्काँ के दाएरे को जो वुसअ'त न दे सके अपने हुदूद-ए-ज़ात का इरफ़ान ही रहे जब दिल हो मुज़्तरिब तो कहाँ तक ख़ुदी की लाज ऐ नाज़-ए-हुस्न आज तिरी आन ही रहे आहट किसी के पाँव की आई न सुब्ह तक हम दिल की धड़कनों के निगहबान ही रहे पहुँचा न दस्त-ए-शौक़ जो दामान-ए-यार तक बे-शग़ल क्यों हो अपना गरेबान ही रहे है इल्तिजा-ए-शौक़ में भी तनतना वही 'एहसान' इश्क़ करके भी 'एहसान' ही रहे