ख़याल-ओ-ख़्वाब की बातों को दोहराने से क्या होगा हक़ीक़त सामने है जब तो अफ़्साने से क्या होगा ख़िरद से जो नहीं मुमकिन जुनूँ वो कर दिखाता है ग़लत है जो ये कहते हैं कि दीवाने से क्या होगा अगर दरिया में रहना है बहाना सीख मौजों से ख़स-ओ-ख़ाशाक की मानिंद बह जाने से क्या होगा इसी एहसास से पैदा हुई है फ़िक्र-ए-आजादी क़फ़स में इस तरह घुट घुट के मर जाने से क्या होगा शिकस्ता-साज़ से नग़्मे कभी पैदा नहीं होते तुम्हारी उँगलियों के शौक़ फ़रमाने से क्या होगा दिए आँखों के दोनों बुझ गए जब रात भर जल कर तो हंगाम-ए-सहर यूँ बे-हिजाब आने से क्या होगा अता करना है 'एहसाँ' बज़्म को सोज़-ए-जिगर अपना ब-रंग-ए-शम्अ यूँ ख़ामोश जल जाने से क्या होगा