इक ऐसे चारा-गर से भी रिश्ता रहा मिरा जितना था ज़ख़्म उतना ही गहरा रहा मिरा मैं क्या अकेला छानता तेरी गली की ख़ाक वो दर्द था जो हाथ बटाता रहा मिरा वो पेड़ कट के एक इमारत में लग गया साए में जिस के कारवाँ ठहरा रहा मिरा अब के हवाएँ घर से मिरे छत भी ले गईं मौसम नया मज़ाक़ उड़ाता रहा मिरा 'काशिफ़' कल एक लाश सर-ए-राह देख कर मुझ से ज़मीर आँख चुराता रहा मिरा