इक आवारा सा लम्हा क्या क़फ़स में आ गया है लगा जैसे ज़माना दस्तरस में आ गया है ये किस कोंपल खुली साअत सदा दी है किसी ने रुतों का रस हर इक तार नफ़स में आ गया है हम उस कूचे से निस्बत की ख़ुशी कैसे सँभालें हमारा नाम उस के ख़ार-ओ-ख़स में आ गया है लहू में लौ कहाँ मौजूद ज़िंदा राब्ते की निभाने को फ़क़त बे-रूह रस्में आ गया है अना के फ़ैसले क्या मर्ज़ी-ए-पिंदार कैसी मिरा होना न होना उस के बस में आ गया है उतर आए उन आँखों में कुछ ऐसे अक्स 'आली' कि दिल फिर से गिरफ़्त-ए-पेश-ओ-पस में आ गया है