इक बर्ग-ए-ख़ुश्क से गुल-ए-ताज़ा तक आ गए हम शहर-ए-दिल से जिस्म के सहरा तक आ गए उस शाम डूबने की तमन्ना नहीं रही जिस शाम तेरे हुस्न के दरिया तक आ गए कुछ लोग इब्तिदा-ए-रिफ़ाक़त से क़ब्ल ही आइंदा के हर एक गुज़िश्ता तक आ गए ये क्या कि तुम से राज़-ए-मोहब्बत नहीं छुपा ये क्या कि तुम भी शौक़-ए-तमाशा तक आ गए बेज़ारी-ए-कमाल से इतना हुआ कि हम आराम से ज़वाल-ए-तमन्ना तक आ गए