एक बे-हासिल तलब बे-नाम इक मंज़िल बना टूटने के बा'द ही दिल दर-हक़ीक़त दिल बना मंज़िलें ही क्या नया हर जादा-ए-मंज़िल बना लेकिन अपने आप को पहले किसी क़ाबिल बना हम फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू खा कर भी आगे बढ़ गए कम-निगाहों के लिए हर मरहला मुश्किल बना किस क़दर अहद-आफ़रीं आलम है तेरी ज़ात का जो तिरी महफ़िल में आया वो ख़ुद इक महफ़िल बना ग़म से ना-मानूस रहने तक थीं सारी तल्ख़ियाँ रफ़्ता रफ़्ता ग़म ही अपनी उम्र का हासिल बना पी गए कितने ही आँसू हम ब-नाम-ए-ज़िंदगी एक मुद्दत में कहीं दिल दर्द के क़ाबिल बना जज़्बा-ए-मंज़िल सलामत रास्तों की क्या कमी हम जिधर निकले नया इक जादा-ए-मंज़िल बना हर मक़ाम-ए-ज़िंदगी पर था मिरा आलम जुदा मैं कहीं तूफ़ाँ कहीं कश्ती कहीं साहिल बना तब्सिरे करने लगे हैं लोग हस्ब-ए-हौसला 'शौक़' आसानी से मैं कुछ और भी मुश्किल बना