इक टीस ब-मुश्किल थम थम कर अश्कों की ज़बाँ तक पहुँची है मा'लूम नहीं बर्बादी-ए-दिल पहुँची तो कहाँ तक पहुँची है बे-ताबी-ए-ग़म बढ़ते बढ़ते क्या ज़ख़्म-ए-निहाँ तक पहुँची है हर दर्द नज़र में उभरा है हर साँस फ़ुग़ाँ तक पहुँची है कितने तो फ़रेब-ए-मंज़िल में एहसास-ए-तलब तक खो बैठे हालाँकि अभी दुनिया-ए-नज़र मंज़िल के निशाँ तक पहुँची है क्या चारा-ए-दर्द-ए-महरूमी आने को हज़ार आ जाए हँसी ये चोट ज़रा सी चोट सही फिर भी दिल-ओ-जाँ तक पहुँची है हालात से कुछ हट कर भी कभी हालात समझने पड़ते हैं लेकिन ये मताअ'-ए-दूर-रसी कुछ दीदा-वराँ तक पहुँची है कितने ही ग़मों को दुनिया ने दे दी है ज़बाँ अफ़्सानों की बर्बादी-ए-अहल-ए-दिल लेकिन कब शरह-ओ-बयाँ तक पहुँची है अब तक है फ़ुग़ान-ए-नीम-शबी महरूम-ए-असर तो रहने दो क्या कम है यही आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल तो वहाँ तक पहुँची है मुमकिन है कि 'शौक़' अब वो ख़ुद भी तस्कीन-ए-तमन्ना दे न सकें पर्दे में हँसी के पोशीदा फ़रियाद यहाँ तक पहुँची हे