एक दो अश्क-ए-नदामत नहीं पैदा करते पहली ही बार कहाँ घास हरी आती है सोचता हूँ कि किसे देखूँ किसे न देखूँ नींद आँखों पे कई ख़्वाब धरी आती है इश्क़ की आग पे ये तेल छिड़कती है मियाँ ख़ुश्क आँखों से जो अश्कों की लड़ी आती है अश्क जो चाँद के चेहरे पे भी गिरते हैं कभी ज़िंदगी एक तसव्वुर से जिला पाती है ख़ुश्क मौसम का जो इक बार किया था शिकवा तब से मिलने मुझे हर साल मरी आती है पहले इक उम्र परिस्तान की गलियाँ नापीं फिर मिरे हाथ में जादू की छड़ी आती है हो तो सकती है मयस्सर मुझे ख़िलअत 'मूसा' क्या करूँ बीच में दरयूज़ा-गरी आती है