इक इक कर के हो गए रुख़्सत अब कोई अरमान नहीं दिल में गहरा सन्नाटा है अब कोई मेहमान नहीं तुम ने भी सुन रक्खा होगा हम भी सुनते आए हैं जिस के दिल में दर्द न हो वो पत्थर है इंसान नहीं दर्द कड़ा हो तो भी अक्सर पत्थर बन जाते हैं लोग मरने की उम्मीद नहीं है जीने का सामान नहीं कुछ मत बोलो चुप हो जाओ बातों में क्या रक्खा है क्यूँ करते हो ऐसी बातें जिन बातों में जान नहीं औरों जैसी बातें मुझ को भी करनी पड़ती हैं रोज़ ये तो मेरी मजबूरी है ये मेरी पहचान नहीं मेरी बातें सीधी सच्ची उन में कोई पेच नहीं इन को 'मीर' की ग़ज़लें जानो 'ग़ालिब' का दीवान नहीं दिल को बहलाने की ख़ातिर हम भी क्या क्या करते हैं ख़ूब समझता है वो भी सब ऐसा भी नादान नहीं रात गए अक्सर यूँ ही क्यूँ फूट फूट कर रोते हो ख़ाक तले सोने वालों से मिलने का इम्कान नहीं वो था मेरे दुख का साथी और तुम्हें क्या बतलाएँ उस का मेरा जो रिश्ता था उस रिश्ते का नाम नहीं वो होता तो फिर भी शायद दर्द पे कुछ क़ाबू रहता तन्हाई से तन्हा लड़ना कुछ ऐसा आसान नहीं