एक एक कर के सो गए ग़म-ख़्वार रात को ये हर्फ़-ए-नूर ही रहे बेदार रात को दिन को ये बर्ग-ओ-शाख़ ख़मोशी की बर्फ़ हैं देखो तो इन की गर्मी-ए-गुफ़्तार रात को इक रोज़ उस के गेसू-ए-मुश्कीं को छू लिया उगते हैं आस-पास समन-ज़ार रात को मुमकिन कहाँ कि सो सकूँ पल-भर के वास्ते होता है क्या से क्या पस-ए-दीवार रात को दिन को थपेड़े मौजों के खा खा के सो गए इक लम्स-ए-माह से हुए बेदार रात को उन को हक़ीर साए समझ के न टाल दो फिरते हैं रौशनी के तलब-गार रात को