एक इक लम्हा गुज़ारा जा रहा है होश में ऐ ज़हे-क़िस्मत जो हैं तूफ़ान की आग़ोश में अब ये आलम है हमारा बंदगी के जोश में एक सज्दा बे-ख़ुदी में एक सज्दा होश में मस्लहत कुछ भी न कहने दे तो इस का क्या इलाज जाने कितनी दास्तानें हैं लब-ए-ख़ामोश में उफ़ ये सैलाब-ए-हवादिस हाए ये तूफ़ान-ए-ग़म यूँ भी लाता होगा दीवाने को कोई होश में डर है अहल-ए-कारवाँ की तेज़ी-ए-रफ़्तार से अपनी मंज़िल भी न खो बैठें किसी दिन जोश में सामने महशर हो या कौनैन चाहे कुछ भी हो उन का दीवाना तो अब आता नहीं है होश में 'कैफ़' से पूछे कोई तेरे करम की वुसअ'तें उस ने देखा है दो-आलम को तिरी आग़ोश में