एक इक लम्हा मुझे ज़ीस्त से बे-ज़ारी है मेरी हर साँस सुलगती हुई चिंगारी है क्या ही औराक़ मुसव्वर हैं किताब-ए-दिल के ख़ून-ए-अरमाँ से हर इक सफ़्हे पे गुल-कारी है ज़ख़्म ही ज़ख़्म हैं आँखों से लगा कर दिल तक सोच में हूँ कि ये किस क़िस्म की दिलदारी है ये सिमटते हुए साए ये लरज़ते दर-ओ-बाम इक नई सुब्ह के एलान की तय्यारी है हर क़दम पर नज़र आते हैं सलीबों के सुतून ये कोई ख़्वाब है या आलम-ए-बेदारी है क्यूँ उठें पाँव जुनूँ के सू-ए-मंज़िल 'सादिक़' एक इक गाम सलासिल की गिराँ-बारी है