एक ही दश्त था वो भी न खंगाला मैं ने दिल पे लेना नहीं था पाँव का छाला मैं ने घर के ढह जाने में ग़फ़लत मिरी शामिल थी मगर सारा मलबा दर-ओ-दीवार पे डाला मैं ने काश मैं अपने अज़ा-दारों को बतला सकता कैसा दुख था वो जिसे मौत से टाला मैं ने आख़िर-ए-कार ग़ुलामी से बग़ावत कर दी और ज़ंजीर को शमशीर में ढाला मैं ने यूँ तो हर शख़्स यहाँ आँख लिए फिरता है पर नहीं देखा कोई देखने वाला मैं ने और फिर इक रोज़ हमेशा के लिए खो गया मैं या'नी इक रोज़ उसे ढूँड निकाला मैं ने