एक ही ख़त में है क्या हाल जो मज़कूर नहीं दिल तो दिल इश्क़ में सादा वरक़-ए-तूर नहीं एक हम हैं कि किसी बात का मक़्दूर नहीं एक वो हैं कि किसी रंग में मजबूर नहीं इम्तिहाँ-गाह-ए-मोहब्बत नहीं गुल-ए-ज़ार-ए-ख़लील कौन ऐसा है जो ज़ख़्मों से यहाँ चूर नहीं नज़'अ का वक़्त है बैठा है सिरहाने कोई वक़्त अब वो है कि मरना हमें मंज़ूर नहीं क़ाबिल-ए-ग़ौर है ऐ जल्वा-परिस्तान-ए-अज़ल ये कहानी है मिरी वाक़िया-ए-तूर नहीं मिस्र का चाँद हो आग़ोश में ज़िंदाँ के तुलूअ' फ़ितरत-ए-हुस्न बदल जाए तो कुछ दूर नहीं सर झुकाए दर-ए-दौलत से पलटने वाले बे-नियाज़ी की अदाएँ हैं वो मग़रूर नहीं जुब्बा-साई भी गवारा नहीं करता कोई उठ के जाना दर-ए-दौलत से भी दस्तूर नहीं इश्क़ में सरहद-ए-मंज़िल से कुछ आगे होंगे उस का रोना है कोई सई भी मश्कूर नहीं दिल में पैवस्त हुई थी जो मिरे रोज़-ए-अज़ल है वही शोख़-नज़र साइक़-ए-तूर नहीं दिल को भी दी गई है ख़िदमत-ए-दर्द-ए-अबदी सिर्फ़ आँखें ही मिरी रोने पे मा'मूर नहीं सर-ए-मिज़्गाँ मिरे आँसू का सितारा चमका दार पर अब असर-ए-जज़्बा-ए-मंसूर नहीं साद सुर्ख़ी से किया किस ने सर-ए-फ़र्द-ए-जमाल अपने आलम में तिरे दीदा-ए-मख़मूर नहीं ज़िंदगी ख़त्म हुई जब तो इक आवाज़ सुनी आ गया मैं तिरे नज़दीक बस अब दूर नहीं रूह कहती हुई निकली है दम-ए-नज़अ 'अज़ीज़' उन से इस बज़्म में मिलना हमें मंज़ूर नहीं