एक जल्वा एक नग़्मा एक पैमाना अभी ज़िंदगी का हम-नशीं मत छेड़ अफ़्साना अभी लज़्ज़त-ए-सहबा से हूँ साक़ी-ए-बेगाना अभी हो रहा है बंद क्यूँ हस्ती का मय-ख़ाना अभी हैरत-ए-जल्वा मिरी आँखों का पर्दा बन गई हूँ सर-ए-मंज़िल मगर मंज़िल से बेगाना अभी देख तो पी कर ज़रा सी आज सहबा-ए-ख़ुदी देख बनता है जहाँ इक आइना-ख़ाना अभी खुल गया गर मय-कशों पर दर्द-ए-सहबा का भरम गूँज उट्ठेगा नवा-ए-ग़म से मय-ख़ाना अभी सुन रहे हैं क़िस्सा-ए-आदम अज़ल से हम मगर है वही कैफ़िय्यत-ए-आग़ाज़-ए-अफ़्साना अभी कासा-ए-दिल को मुजल्ला और कर लूँ तो चलूँ दर्ख़ुर-ए-हुस्न-ए-अज़ल कब है ये नज़राना अभी गेसू-ए-कौनैन तो मिन्नत-कश-ए-शाना नहीं हाँ मगर उलझा हुआ है ज़ेहन-ए-फ़रज़ाना अभी जिस क़दर पीता गया मैं तिश्नगी बढ़ती गई बस यही थी आरज़ू और एक पैमाना अभी सिद्क़-ए-दिल से साक़ी-ए-फ़ितरत को इक आवाज़ दे देख आता है तिरे हाथों में पैमाना अभी फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारा कब हासिल हुई 'फ़रहत' मुझे हूँ असीर-ए-कार-गाह-ए-हुस्न-ए-जानाना अभी