एक कश्ती-काग़ज़ी पर ग़ौर-ओ-ख़ौज़ होगा मेरी सादगी पर ग़ौर-ओ-ख़ौज़ आदमियत का निशाँ मिटता गया हो रहा है आदमी पर ग़ौर-ओ-ख़ौज़ जो मुख़ालिफ़ थे मिरे करते हैं वो आज मेरी शाइ'री पर ग़ौर-ओ-ख़ौज़ मुफ़लिसों से कोई हमदर्दी नहीं किस लिए है मुफ़्लिसी पर ग़ौर-ओ-ख़ौज़ कौन बेहतर है ये उनवाँ छोड़ कर काश होता बेहतरी पर ग़ौर-ओ-ख़ौज़ आइए करते हैं बे-जंग-ओ-जदल बाहमी रस्सा-कशी पर ग़ौर-ओ-ख़ौज़ बे-बसों का ज़ेहन तक माऊफ़ था कौन करता बेबसी पर ग़ौर-ओ-ख़ौज़