इक ख़ाली चाँद ही लब-ए-जू रखना था उस के हिज्र का ये भी पहलू रखना था सब का दामन मोतियों से भरने वाले मेरी आँख में भी इक आँसू रखना था सूरज करना था मेरी पेशानी को इस मिट्टी में ये भी जादू रखना था किस की आँखें कहाँ की आँखें हर्फ़ हुईं पत्थर थे तो ख़ुद पर क़ाबू रखना था किया था उस के नाम की लौ को रौशन जब दिलों में अक्स-ए-ख़िराम-ए-आहू रखना था जब हासिल ला-हासिल दोनों एक से थे फिर ख़ुद को न असीर-ए-मन-ओ-तू रखना था याद का ख़ंजर उतारना था सीने में देर तक इक मंज़र को ख़ुश्बू रखना था इक आलम से भर कर उस की झोली 'तूर' अपनी हथेली पर बर्ग-ए-हू रखना था