इक ख़्वाब के मौहूम निशाँ ढूँड रहा था मैं हद्द-ए-यक़ीं पर भी गुमाँ ढूँड रहा था साए की तरह भागते माहौल के अंदर मैं अपने ख़यालों का जहाँ ढूँड रहा था जो राज़ है वो खुल के भी इक राज़ ही रह जाए इज़हार को मैं ऐसी ज़बाँ ढूँड रहा था मरहम की तमन्ना थी मुझे ज़ख़्म से बाहर दरमाँ था कहाँ और कहाँ ढूँड रहा था शायद कि वो वाक़िफ़ नहीं आदाब-ए-सफ़र से पानी में जो क़दमों के निशाँ ढूँड रहा था कब था उसे अंदाज़ा 'सहर' संग-ए-फ़लक का शीशे के मकाँ में जो अमाँ ढूँड रहा था