क़याम-ओ-नक़्ल अजाइब के तर्जुमाँ तो नहीं अमल हर एक मुसलसल है ना-गहाँ तो नहीं ये मरकज़े की हरारत कशिश का बाइ'स है जो हो वो सर्द तो फिर ये ज़मीं भी माँ तो नहीं मुहीत चारों-तरफ़ से है इक ख़ला-ए-बसीत ज़मीं ये अपनी फ़क़त ज़ेर-ए-आसमाँ तो नहीं हवा उड़ाए उन्हें और कहीं भी ले जाए ये टीले रेत के पक्की निशानियाँ तो नहीं हवा के पास अमानत हैं सब सदा-ओ-अक्स अभी गिरफ़्त से बाहर हैं पर निहाँ तो नहीं