इक ख़्वाब थी ज़िंदगी हमारी फिर आँख नहीं खुली हमारी दुनिया से भी फिर नहीं मिले हम वो भी तो कभी न थी हमारी दिन ढल गया ख़्वाब देखने में कट जाएगी रात भी हमारी पलकों पे ये फूल आँसुओं के सहरा की ये रेत भी हमारी इक ध्यान की लहर ने डुबोया इक याद न हो सकी हमारी टापों की सदा सी उस के ग़म की बे-तेग़ सिपाह थी हमारी कब हो गई मेरे क़द से ऊँची दीवार ये बीच की हमारी देखा तो हर आईने में हम थे ख़ुद से हुई बात भी हमारी आए हो तो ये ग़ज़ल भी सुन लो बे-वक़्त की रागनी हमारी