इक खुला मैदाँ तमाशा-गाह के उस पार है जिस में हर रक़्क़ास का इक आइना तय्यार है रेत के ज़रिए हमारी मंज़िलें और उन की हम पस यहाँ सम्त-ए-सफ़र का जानना बे-कार है रात और तूफ़ान-ए-अब्र-ओ-बाद मेरे हर तरफ़ दूर लौ देती हुई इक मिशअल-ए-रुख़्सार है फिर कभी उट्ठे तो मिल लेंगे न इतने दुख उठा मौत से होता हुआ इक रास्ता हमवार है इस तरह बाब-ए-नसीहत खोल कर बैठे हैं लोग जैसे ख़ैर ओ शर का दुनिया में कोई मेआर है लहर वो आई कि हम हैं और नशेब-ए-गुमरही ग़म के आगे बंद अब के बाँधना दुश्वार है सिलसिला आवाज़ का देखो कि ख़ोशे सरसराए फिर खनक है धात की फिर साँप की फुन्कार है