एक माहौल अछूता चाहूँ सहन के नाम पे सहरा चाहूँ काएनातें मिरे ख़्वाबों की असीर और क़ुदरत से मैं कितना चाहूँ तर्बियत मिरी ज़मीं ने की है में ख़लाओं में लपकना चाहूँ जितने तारीक घरौंदे हैं वहाँ दिल की क़िंदील जलाना चाहूँ बख़्शवाने को गुनाह-ए-आदम फिर से फ़िरदौस में जाना चाहूँ दोज़ख़ इंसान पे हो जाए हराम रब से ये वादा-ए-फ़र्दा चाहूँ ख़ुश्क पत्ते न शजर से छीने बस ये एहसान हवा का चाहूँ मिरी ज़िद कौन करेगा पूरी शाम को सुब्ह का तारा चाहूँ मिरा हर काम अलग दुनिया से जिस को चाहूँ उसे तन्हा चाहूँ हिज्र की कितनी तमाज़त है 'नदीम' अब किसी याद का साया चाहूँ