एक मक़्तूल-ए-जफ़ा दो ज़ुल्म के क़ाबिल न था वर्ना दिल का मारना आसान था मुश्किल न था शौक़-ए-आज़ादी में तड़पूँ उस पे राज़ी दिल न था वर्ना बेताबी सलामत छूटना मुश्किल न था हश्र में वो सर झुकाए हैं मैं शिकवा क्या करूँ जाने वाली जान थी मेरा कोई क़ातिल न था अब सुलैमानी किसे कहते हैं बतला दे मुझे एक आलम था तिरी मुट्ठी में मेरा दिल न था दे सदा अब दिल मगर नक़्श-ए-क़दम को देख कर ऐसे भी दर हैं कभी जिन पर कोई साइल न था ख़ास वक़्त-ए-याद-ए-गुलशन और मेरा छेड़ना शब को भी सय्याद मेरे ज़ब्ह से ग़ाफ़िल न था सुब्ह-ओ-शाम-ए-ग़म ने दामन भर के भेजा दहर से वर्ना इस उम्र-ए-दो-रोज़ा का कोई हासिल न था उस की क़ुदरत ना-तवानों को भी देता है उरूज आसमाँ से सर चढ़े नाला तो इस क़ाबिल न था तेरे नक़्शे ने भी फ़ुर्क़त में न बहलाया मुझे शाम-ए-ग़म जब आई गुर्दों पर हर कामिल न था देख लेते दो क़दम चल कर कि मतलब था यही दर पे जो आया था वो बीमार था साइल न था क़ल्ब-ए-सोज़ाँ और ही धोका न खाना दहर में रह गया जो आग दे कर संग था वो दिल न था कुछ सँभल जाता अगर करवट बदल जाते मिरी ये मुझे दुश्वार था उन के लिए मुश्किल न था डूबता था दिल शब-ए-वस्ल आ चुकी थी ता-सहर एक तिनके का सहारा भी लब-ए-साहिल न था इस दिल-ए-गुम-गश्ता मतलब के सबब से दहर में कौन सा दिन था कि मैं आवारा-ए-मंज़िल न था एक जलती शम्अ' उठवा दी बहुत अच्छा किया सोख़्ता-दिल था मैं कोई रौनक़-ए-महफ़िल न था शाम-ए-ग़म जिस में रहे बरसों वहाँ क्या ईद हो वो तो आ जाए मगर ये दिल ही इस क़ाबिल न था जुज़ फ़रेब-ए-हुस्न और उल्फ़त को 'साक़िब' क्या कहूँ ज़िंदगी से शय कभी उस पर भी दिल माइल न था