एक मल्बूस-ए-दरीदा है मिरी वहशत-ए-हिज्र हुई जाती है हिजाबों में अयाँ क़ामत-ए-हिज्र इक तहय्युर सा तहय्युर है तिलिस्म-गाह-ए-तलब है फ़ुसूँ-ख़ेज़ कहीं उस से सिवा इशरत-ए-हिज्र दामन-ए-दर्द में सिमटा जो सुकूत-ए-गिर्या चश्म-बे-आब में पोशीदा रही इस्मत-ए-हिज्र तंग-दामानी-ए-आलम में समा ही न सकी है सरीर-आरा कराँ-ता-ब-कराँ वुसअ'त-ए-हिज्र आईना-ख़ाना-ए-दिल में है वही परतव-ए-हुज़्न नक़्श-दर-नक़्श वही ख़ाल-ओ-ख़द-ए-शौकत-ए-हिज्र पर्दा-ए-चश्म पे रक़्साँ है तिरा अक्स हुनूज़ सो बस इक वहम है ये कार-गह-ए-साअत-ए-हिज्र इश्क़-ए-शोरीदा तो उर्यां हुआ जाता था मगर पर्दा-दार-ए-निगह-ए-शौक़ रही किसवत-ए-हिज्र ज़ख़्म-ए-दिल दीदा-ए-ख़ूनाबा-फ़शाँ जज़्ब-ओ-जुनूँ साथ लाई है ख़ज़ीने ख़बर-ए-तोहमत-ए-हिज्र इक तलातुम में है ये आलम-ए-आब-ओ-ख़ाकी हाए मत पूछिए 'अंजुम' ज़बर-ए-हुरमत-ए-हिज्र