एक मरकज़ पे सिमटता जाऊँ ये मैं घटता हूँ कि बढ़ता जाऊँ इक नफ़स भी मैं न जाऊँ बेकार किसी तख़्लीक़ में बरता जाऊँ मैं बुलंदी की तरफ़ माइल हूँ ज़ीना-दर-ज़ीना उतरता जाऊँ हो रहा हूँ तिरे दुख में तहलील अपने हर दर्द से कटता जाऊँ हो रहा हूँ मैं कहीं और तुलू उफ़ुक़-ए-जिस्म से ढलता जाऊँ