इक मसर्रत मिरे अतराफ़ को अनजानी दे नुत्क़ को लब से उठा आँख को हैरानी दे है तमन्ना कि चमकते रहें मेहवर के बग़ैर हवस-ए-ख़ाम न दे इश्क़ तू ला-फ़ानी दे नक़्श तो सारे मुकम्मल हैं अब उलझन ये है किस को आबाद करे और किसे वीरानी दे देख कर आए हैं कुछ लोग वहाँ सब्ज़ लकीर मैं उसे देख सकूँ इतनी गिराँ-जानी दे ये तो देखें कि है बुनियाद में क्या क्या महफ़ूज़ घर बनाया है तो अब वर्ता-ए-तुग़यानी दे अक्स-ए-रुख़ कैसा यहाँ कुछ भी नहीं है दिल में हम को शादाब न कर हौसला तूफ़ानी दे सामने तेरे हम इस ख़ाक से शर्मिंदा न हों मौत आसान हो या रिज़्क़ में अर्ज़ानी दे जाने क्या क्या नज़र आता है तमन्ना बर-कफ़ मेरे मालिक मुझे दो रोज़ की सुल्तानी दे हौसला हार गई तिश्ना-दहानी 'हक़्क़ी' अब तू मश्कीज़ा उठा और मुझे पानी दे