दिल को हम दरिया कहें मंज़र-निगारी और क्या पुर्सिश-ए-अहवाल-ए-आक़ा कम-अयारी और क्या अपने मंज़र से अलग होता नहीं है कोई रंग अपनी आँखों के सिवा बाद-ए-बहारी और क्या हम भी कुछ कहते प उस की गुफ़्तुगू का सिलसिला ख़त्म होता ही नहीं है होशियारी और क्या सब उठा कर ले गईं मेरी जुनूँ-सामानियाँ अब सताएगी हमें बे-अख़्तियारी और क्या मेरी वहशत भी सुकूँ ना-आश्ना मेरी तरह मेरे क़दमों से बंधी से ज़िम्मेदारी और क्या उस ज़ियाँ-ख़ाने में मिलती ही नहीं दाद-ए-फ़िराक़ ज़ब्त का पैग़ाम देगी सोगवारी और क्या जी में आ जाए तो हम भी मुस्कुरा कर देख लें आँख फिर पहरों न खोलें शहरयारी और क्या 'हक़्क़ी' बेचारा आख़िर थक-थका कर सो गया अपने ज़ख़्मों की वो करता पर्दा-दारी और क्या