एक मुद्दत से मिरे घर में न आया कोई फिर भी आँगन में नज़र आता है साया कोई मुझ को इक ज़ख़्मी परिंदे का ख़याल आता है शाख़ से टूट के उड़ता है जो पत्ता कोई लोग घबरा के निकल आए हैं मैदानों में हब्स ऐसा है कि आता नहीं झोंका कोई बे-ख़बर वक़्त के धारे पे बहे जाते हैं क्या ख़बर कौन सी मंज़िल पे है पहुँचा कोई रंग क्या क्या न समाए हैं मिरी आँखों में सूरत-ए-नक़्श मगर दिल में न उतरा कोई जो मिरी रूह के ज़ख़्मों का मुदावा ले 'ज़मान' मुझ को इस शहर में मिलता नहीं ऐसा कोई