इक न आने वाले का इंतिज़ार करते हैं शम-ए-रह-गुज़र हैं हम रोज़ बुझते-जलते हैं मेरे कुछ न कहने को हर्फ़-ए-आरज़ू समझो ख़ामुशी में भी मा'नी कुछ न कुछ निकलते हैं एक नश्शा रहता है तुझ से मिल के पहरों तक नश्शा जब नहीं होता और हम बहकते हैं राह-ए-दर्द में कोई हम-सफ़र नहीं होता अपनी आग में ख़ुद ही शम्अ' साँ पिघलते हैं देखना है कौन 'इश्क़ी' साथ दे सर-ए-मंज़िल इब्तिदा में तो सब ही साथ साथ चलते हैं