इक रेत का बगूला मुझ को उचक रहा था ख़ुद अपनी जुस्तुजू थी सो मैं भटक रहा था कमरे में इक उदासी कैसी महक रही थी आँखों से एक आँसू कैसा छलक रहा था ये बार-ए-जिस्म आख़िर मैं ने उठा लिया है आ'ज़ा चटख़ रहे थे और मैं भी थक रहा था मुझ में किसी की सूरत क्या गुल खिला रही थी बाहर से हँस रहा था अन्दर सिसक रहा था ये मेरी ख़ामुशी भी ले जाएगी कहाँ तक मैं आज सिर्फ़ उस की आवाज़ तक रहा था