सिर्फ़ इक उस के ख़फ़ा होने से मुझ को मतलब न रहा होने से ज़िंदगी मौत से मिल पाती नहीं बीच में एक ख़ला होने से शाम बिखरी है मिरे दिल की तरह तेरी ज़ुल्फ़ों की हवा होने से दिल तो यूँ राह पे आने का नहीं चार छे दिन की सज़ा होने से क्या बिगड़ जाता है तेरा मिरे यार हम ग़रीबों का भला होने से अब भी बंदों में छुपे बैठे हो क्या मिला तुम को ख़ुदा होने से कैसी भरपूर इबादत की है कुछ नमाज़ों के क़ज़ा होने से जगमगा उठता है कमरा सारा सूरत आईना-नुमा होने से