इक समुंदर सा गिरा था मुझ में फिर बहुत शोर हुआ था मुझ में रास्ते सारे ही मानूस से थे इक फ़क़त मैं ही नया था मुझ में मैं भी तस्वीर सा चस्पाँ था कहीं सानेहा ये भी हुआ था मुझ में ख़ाक और ख़ून में नहलाया हुआ कब से इक शख़्स पड़ा था मुझ में बर्फ़ की तह में लरज़ती हुई लाश ऐसा मंज़र भी छुपा था मुझ में मैं समझता था जिसे जान-ए-नफ़स वो बहुत दूर खड़ा था मुझ में उस ने क्यों छोड़ दिया ख़ाना-ए-दिल नक़्श-ए-हर-लम्स हरा था मुझ में था कोई मुझ में जो था मुझ से हक़ीर और कोई मुझ से बड़ा था मुझ में रक़्स करते हुए तारों का हुजूम ये ख़ज़ाना भी गढ़ा था मुझ में आसमाँ ख़ौफ़ से तकता था मुझे क्या कोई उस से बड़ा था मुझ में