एक सौदा है लज़्ज़त-ए-ग़म है आज फिर मेरी आँख पुर-नम है दिल को बहला रहे हैं मुद्दत से ज़िंदगी क्या अज़ाब से कम है ज़र्रा ज़र्रा उदास है उस का मेरे घर का अजीब आलम है मेहर-ओ-मह पर कमंद पड़ती है सोच में कोई इब्न-ए-आदम है तुझ से पर्दा नहीं मिरे ग़म का तू मिरी ज़िंदगी का महरम है ये जो इक ए'तिबार है तुम पर किस क़दर पाएदार-ओ-मुहकम है कल तो दुनिया बदल ही जाएगी आज उन का ये जौर-ए-पैहम है दिल न का'बा है ने कलीसा है तेरा घर है हरीम-ए-मरियम है