एक से सिलसिले हैं सब हिज्र की रुत बता गई फिर वही सुब्ह आएगी फिर वही शाम आ गई मेरे लहू में जल उठे उतने ही ताज़ा-दम चराग़ वक़्त की साज़िशी हवा जितने दिए बुझा गई मैं भी ब-पास-ए-दोस्ताँ अपने ख़िलाफ़ हो गया अब यही रस्म-ए-दोस्ती मुझ को भी रास आ गई तुंद हवा के जश्न में लोग गए तो थे मगर तन से कोई क़बा छिनी सर से कोई रिदा गई दिल-ज़दगाँ के क़ाफ़िले दूर निकल चुके तमाम उन की तलाश में निगाह अब जो गई तो क्या गई आख़िर-ए-शब की दास्ताँ और करें भी क्या बयाँ एक ही आह-ए-सर्द थी सारे दिए बुझा गई