इक शजर की टहनियों पर चाँद रोज़ाना चढ़े जैसे दीवार-ए-जुनूँ पर कोई दीवाना चढ़े दिल पे ऐसे इक ग़ज़ल की कैफ़ियत तारी हुई जैसे घर की छत पे कोई शख़्स अन-जाना चढ़े इक बदन की बंदिशों ने बाँध ली रूहें तमाम जैसे पांचों उँगलियों पर एक दस्ताना चढ़े रोज़-मर्रा ज़िंदगी किरदार वैसे ही जिएँ और पूरी ज़ीस्त पर पोशाक-ए-अफ़्साना चढ़े ढूँढने इक आफ़्ताब-ए-शे'र निकला है ‘मिराश’ देखना है किस बुलंदी तक ये परवाना चढ़े