टिका के सर मिरे शाने पे सो रही थी वो जहान-ए-ख़्वाब में बेदार हो रही थी वो पहाड़ियों के इधर रतजगों की बस्ती थी पहाड़ियों के उधर नींद बो रही थी वो मैं इस लिए था क़बीले के जश्न में शामिल कि दुश्मनों की मोहब्बत में रो रही थी वो इसी गुलाब के काँटों से ख़्वाब लटके थे इसी गुलाब की पत्ती पे सो रही थी वो मुझे पता नहीं क्या क्या दिखाई उस को दिया मुझे पता है मगर देख तो रही थी वो वो घास मोड़ के पंछी बना रही थी और परों में ओस के क़तरे पिरो रही थी वो नदी में तैरती कुछ जुगनूओं की लाशें थीं जब अपने जिस्म के दाग़ों को धो रही थी वो 'मिराश' तेरी मोहब्बत से पहले सारी उम्र बदन से एक थी पर मन से दो रही थी वो