इक शख़्स के न होने से वीराँ है सारा शहर ऐ दिल-ज़दो बसाया है तुम ने ये कैसा शहर बे-मेहर संग-ओ-ख़िश्त तो बे-साया हर शजर लगता है दोस्तो ये क़राइन से अपना शहर आसेब खा गया कि नज़र लग गई इसे अब ख़्वाब हो गया है वो इक हँसता बस्ता शहर दिल्ली तो सात बार लुटी और बस गई लेकिन उजड़ के फिर न बसा अपने दिल का शहर अब हाल ये है उट्ठे किसी सम्त भी धुआँ मैं सोचता यही हूँ कि जलता है मेरा शहर 'इश्क़ी' ग़रीब-ए-शहर कहे भी तो क्या कहे जिस का है शहर-यार उसी का है सारा शहर