इक शख़्स था सो अब वो बयाबाँ-नवर्द है इस शहर में हमारे सिवा कौन मर्द है चेहरा हर एक मद्द-ए-मुक़ाबिल का ज़र्द है इश्क़-ए-नबर्द-पेशा तलबगार-ए-मर्द है यक-जिहती-ए-निगाह को आवाज़ कौन दे हर दफ़्तर-ए-ख़याल यहाँ फ़र्द फ़र्द है इस जुस्तुजू की दौड़ में ये भेद भी खुला रंग-ए-सुख़न तलाश-ए-मआ'नी की गर्द है ग़ुर्फ़े से लम्हे लम्हे के झाँकेगा अस्ल रंग चेहरे पे हम सभों के अगर आब ज़र्द है दस्त-ए-सुख़न में तेशा-ए-बातिल न दीजिए दुश्मन अगरचे राह का हर संग-ए-सर्द है इस में हरारतों की नई रूह फूँक दो ख़्वाहिश की लाश एक ज़माने से सर्द है