एक शय थी कि जो पैकर में नहीं है अपने जिस को देते हो सदा घर में नहीं है अपने तुझे पाने की तमन्ना तुझे छूने का ख़याल ऐसा सौदा भी कोई सर में नहीं है अपने तू ने तलवार भी देखी निगह-ए-यार भी देख ये तब-ओ-ताब तो ख़ंजर में नहीं है अपने किस क़बीले से उड़ा लाई है फ़ौज-ए-आदा ऐसा जर्रार तो लश्कर में नहीं है अपने सर-निगूँ जिस की फ़क़ीरी के मुक़ाबिल शाही अब वो शय मर्द-ए-क़लंदर में नहीं है अपने लाख कीजे तलब-ए-राहत-ओ-आराम 'शरीफ़' क्या मिलेगा जो मुक़द्दर में नहीं है अपने