न ख़ुद-सरी में हसीं रोज़-ओ-शब गुज़ारा कर ज़मीन-ए-दिल पे कभी पाँव भी पसारा कर किनारे लग गई मेरे भी शौक़ की कश्ती मिरे रफ़ीक़ तू अब शौक़ से किनारा कर किसी के हिज्र में तस्वीर बन गया हूँ मैं हसीन शाम के मंज़र मुझे निहारा कर यही है लुत्फ़ अना का यही है दिलदारी कि बाज़ियों को कभी जीत के भी हारा कर निकाल कोई तो सूरत कि फ़ासले न रहें क़रीब आ मिरे या फिर मुझे इशारा कर तिरी सदाएँ कभी राएगाँ न जाएँगी वो सुन रहा है यही सोच के पुकारा कर हुसूल-ए-अम्न-ओ-मुहब्बत की चाशनी के लिए मिज़ाज-ए-तल्ख़ी-ए-दौराँ 'सुख़न' गवारा कर