एक सूरत तो है जो उस ने मोहब्बत की है बात जज़्बे की है या बात ज़रूरत की है वो भी कैसा है कसक दिल की समझता ही नहीं मैं भी कैसा हूँ न शिकवा न शिकायत की है हौसला हार दिया जल्द ही मैं ने अपना छोड़ देने में ज़रा उस ने भी उजलत की है क्या सितम है कि बहारों के हसीं मौसम में हम परिंदों ने तिरे शहर से हिजरत की है कुछ नमी सी मिरी आँखों में उमँड आती है जब कहे कोई कि मैं ने भी मोहब्बत की है चाहे सारा ही ज़माना है मुख़ालिफ़ उस का फिर भी 'आरिज़' ने फ़क़त उस की हिमायत की है