एक यूसुफ़ के ख़रीदार हुए हैं हम लोग फिर मोहब्बत में गिरफ़्तार हुए हैं हम लोग चश्म-ए-रंगीं की करामात से घायल हो कर तेरी उल्फ़त के तलबगार हुए हैं हम लोग शहर-ए-ख़ूबाँ की रिवायात से शोरिश कर के ग़म-ए-हिज्राँ के सज़ा-वार हुए हैं हम लोग ज़िंदगी तू ने हमें दर्द के आँसू बख़्शे फिर भी तेरे ही तरफ़-दार हुए हैं हम लोग सुब्ह-ए-आलाम का चेहरा नहीं देखा जाता ख़्वाब-ए-ख़ुश-रंग से बेदार हुए हैं हम लोग मंज़िल-ए-इश्क़ भी हम को ही मिली है 'आसिफ़' दश्त-ओ-सहरा में अगर ख़्वार हुए हैं हम लोग