फ़ासले हैं सदियों के और ज़िंदगी तन्हा दर्द-ए-सर दो-आलम का एक आदमी तन्हा शो'ला-ए-हवादिस ने हौसला दिया वर्ना बुझ के रह गई होती शम-ए-ज़िंदगी तन्हा ज़िंदगी में आमेज़िश उन की रंग भरती है दोस्ती ही काम आए और न दुश्मनी तन्हा पूछता है कब कोई हाल इन चराग़ों का रौशनी दिखाते हैं जो गली गली तन्हा थी नफ़स नफ़स ख़ुशबू था नज़र नज़र चेहरा दिन गुज़र गया तन्हा रात कट गई तन्हा तेरी पारसाई का रह गया भरम वाइ'ज़ जुर्म है मगर नादाँ शग़्ल-ए-मय-कशी तन्हा गुज़रे ऐसे लम्हे भी मुझ पे बारहा 'अतहर' मैं ने ख़ुद को पाया है अंजुमन में भी तन्हा