फ़ुग़ान-ए-नीम-शबी में कोई असर दे दे जो हो सके तो दुआओं का अब समर दे दे विसाल-ए-यार कि जिस में चराग़ जलते हों मिरे नसीब को ऐसा ही इक नगर दे दे बस इक सवाल है उस के बुलंद मंसब से क़फ़स-नसीब को मुमकिन है कोई घर दे दे मैं अपने ज़ख़्म ख़ुद अपने लहू से सींचूँगी मुझे क़रार न दे कोई चारागर दे दे वो आँख बुझ गई जिस से चराग़ जलते थे तमाम तीरा घरों में कोई ख़बर दे दे मैं आशियाने के तिनके सजाए बैठी हूँ हवा के हाथ में नन्हा सा इक शरर दे दे मैं उस के ज़र्फ़ के बारे में और क्या लिक्खूँ जो अपने सहन से दुनिया को रहगुज़र दे दे गुनह सवाब के सारे ही रंग हों उस में फ़रिश्ता छोड़ के मुझ को कोई बशर दे दे ये रात बढ़ गई 'ईमाँ' कोई ख़ुदा के लिए ख़ुदा से कह दो कि लिल्लाह हमें सहर दे दे