फ़िराक़-मौसम के आसमाँ में उजाड़ तारे जुड़े हुए हैं नदी के दामन में हंसराजों के सर्द लाशे गिरे हुए हैं चमकते मौसम का रंग फैला था जिस से आँखें धनक हुई थीं और अब बसारत की नर्म मिट्टी में थूर काँटे उगे हुए हैं तिरे दरीचे के ख़्वाब देखे थे रक़्स करते हुए दिनों में ये दिन तो देखो जो आज निकला है दस्त-ओ-पा सब कटे हुए हैं ख़ुमार कैसा था हम-रही का शुमार घड़ियों का भूल बैठे तिरे नगर के फ़क़ीर अब तक उस एक शब में रुके हुए हैं उसे अदावत थी उस सबा से जो मेरे चेहरे को छू गुज़रती वो अब नहीं है तो अपने आँगन में लू के डेरे लगे हुए हैं रहोगे थामे यूँही ये चौखट अगरचे इक भी नज़र न डालूँ हँसाओ मत घर को लौट जाओ ये राग मेरे सुने हुए हैं कहाँ रुके थे वो क्या शजर थे कि जिन के साए में हम खड़े थे वो धूप कैसी थी जिस की बारिश से मेरे सहरा हरे हुए हैं