जो अपने घर को का'बा मानते हैं पस-ए-दीवार फिर क्यूँ झाँकते हैं नहीं तेरे जुनूँ पर शक नहीं है तिरी आदत मगर पहचानते हैं ये आज़ुर्दा-जबीं माज़ी के बासी नए ज़ख़्मों पे यादें बाँधते हैं तिरे अहल-ए-यक़ीं सज्दों में झुक कर मिरे काफ़िर तिरा ग़म माँगते हैं रिदा-ए-शब तो अब्र-ए-तर से भीगी चलो इक ध्यान सर पर तानते हैं सितारे ज़ब्त के मोती हज़र के क़बा-ए-आरज़ू पर टाँकते हैं तिरी खोटी हँसी पर रोने वाले तिरी आँखों के मौसम जानते हैं