कुछ ऐसा रब्त मुसलसल रहा शुऊ'र से भी कि ख़ौफ़ आने लगा इश्क़ के वफ़ूर से भी वो शश-जहात से यकसाँ दिखाई देता है उसे क़रीब से देखा है और दूर से भी हमारा इश्क़ हक़ीक़त में ग़ार-ए-सौर-ओ-हिरा अगरचे ख़ास अक़ीदत हमें है तूर से भी सुना है ख़ास तअ'ल्लुक़ है ख़ारजियत का हमारी ज़ात के कुछ दाख़ली उमूर से भी तभी तो ज़ेहन पे हावी है इश्क़-ए-सहराई अज़ल से दिल के मरासिम रहे खजूर से भी ये और बात है मानो कि इख़्तिलाफ़ करो निशानियाँ तो हज़ारों मिलीं ज़बूर से भी लहू में रक़्स-कुनाँ इश्क़ है मिरे 'फ़ैसल' जुड़ा हुआ है कोई सिलसिला क़ुसूर से भी