फ़ित्ना उठा तो रज़्म-गह-ए-ख़ाक से उठा सूरज किसी के पैरहन-ए-चाक से उठा ये दिल उठा रहा है बड़े हौसले के साथ वो बार जो ज़मीं से न अफ़्लाक से उठा सब मोजज़ों के बाब में ये मोजज़ा भी हो जो लोग मर गए हैं उन्हें ख़ाक से उठा सूरज की ज़ौ चराग़-ए-शिकस्ता की लौ से हो क़ुल्ज़ुम की मौज दीदा-ए-नमनाक से उठा पूछा जो उस ने अहद-ए-जराहत का माजरा दरिया लहू का हर रग-ए-पोशाक से उठा